हालांकि, अभी बहुत यकीन के साथ यह दावा करना थोड़ी जल्दबाजी होगी, लेकिन लगातार ऐसा लगने लगा है कि कोरोना वायरस की वजह से वि-वैश्वीकरण यानी वैश्वीकरण से पीछे हटने के दौर की शुरुआत होगी। ऐसे संकेत बढ़ते जा रहे हैं कि दुनिया महामारी के आने से पहले की तुलना में अब तटस्थतावाद और संरक्षणवाद यानी केवल खुद की सुरक्षा की फिक्र अपनाने को लेकर कहीं ज्यादा उत्साहित है।

इसमें भारत भी शामिल है। ये संकेत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। इस वैश्विक महामारी ने कई लोगों के लिए तीन चीजें स्पष्ट कर दी हैं। पहली बात, संकट के समय में लोग अपनी रक्षा के लिए सरकारों पर ही निर्भर होते हैं। दूसरी बात, वैश्विक सप्लाई चेन पर भी ठप्प होने का खतरा है और इसलिए वे टिकाऊ नहीं हैं। तीसरी बात, आवश्यक सामग्रियों (जैसे दवाएं) के लिए विदेशों पर निर्भर होना खतरनाक साबित हो सकता है।

दुनियाभर में वैश्विक सप्लाई चेन्स को फिर से स्थापित करने और व्यापार में आ रही बाधाओं को हटाने की जल्दबाजी है। मैन्यूफैक्चरिंग (विनिर्माण) और उत्पादन मूल्य शृंखलाओं को वापस घर या कम से कम घर के नजदीक लाने के लिए ज्यादा संरक्षणवाद और आत्मनिर्भरता (जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आह्वान किया है) की मांग बढ़ रही है।

पूंजी और निवेश की वैश्विक आपूर्ति के साथ कई सीमाओं पर पाइपलाइंस और एनर्जी ग्रिड, साथ ही मुक्त और खुली सीमाओं पर अंतरराष्ट्रीय आवागमन, यह सब कोरोना के बाद वाले दौर के लिए असुरक्षित लगने लगा है।मुक्त व्यापार के खुले सिस्टम के बल पर 1980 में शुरू हुए वैश्वीकरण में वैश्विक अर्थव्यव्स्था ने नई ऊंचाइयां छुई थीं।

इस सफलता को पहले ही 2008-2009 के वित्तीय संकट और चीन के साथ अमेरिका के व्यापार युद्ध से झटका मिल चुका था। अब कोरोना वायरस के बाद से हर तरफ निर्यात तेजी से गिर रहा है और यह संकेत मिल रहे हैं कि इस साल दुनिया में माल का व्यापार 10 से 30 प्रतिशत तक कम हो सकता है।

इस बीच चीन से ‘अलग’ होने का दबाव भी लगातार बढ़ रहा है। जिसका मतलब होगा कि सस्ते चीनी मजदूर और इनपुट सब्सिडी के बिना सस्ते, वैश्वीकृत माल का दौर खत्म हो सकता है। कोविड-19 की वजह से कई लोगों ने यह मान लिया है कि सख्त सीमा और अप्रवासन नियंत्रण जरूरी हैं और राष्ट्रीय हित, अंतरराष्ट्रीय सहयोग से कहीं ज्यादा जरूरी होना चाहिए।

कई लोगों को, जिनमें मोदी के करीबी भी शामिल हैं, इसका जवाब मजबूत सरकार में, राष्ट्र की जरूरत को एक नागरिक की आजादी से पहले रखने में और लोकतांत्रिक बारीकियों के बिना, संघवाद से संसदीय अनदेखी तक में तथा उस राष्ट्रीय हित में नजर आता है, जिसे सरकार राष्ट्रीय हित मानती है।

हममें से जो लोग धरती को ‘एक दुनिया’ की तरह देखते थे, उन्हें अपनी सोच पर फिर विचार करना होगा। दुनिया में राष्ट्रवादी दबंगों के लिए शायद समर्थन तेजी से बढ़ता जाएगा। कई देशों में लोगों की राष्ट्रीय, धार्मिक या नस्लीय पहचान के आधार पर उनके खिलाफ दोषारोपण और आधारहीन अफवाहें भी बढ़ रही थीं।

भारत में उत्तरपूर्व के नागरिकों ने नस्लीय भेदभाव का सामना किया है क्योंकि कथित रूप से उनका रंग-रूप ‘चीनियों’ से मिलता है। सोशल मीडिया और संस्कृति रक्षा की लोकप्रियता ने इन पक्षपातों और पूर्वाग्रहों को और बढ़ा दिया है।

लॉकडाउन से तुरंत पहले हुए तब्लीगी जमात के आयोजन में शामिल लोगों के घर लौटने पर कई राज्यों में संक्रमण फैला, इस तथ्य का मुस्लिमों के खिलाफ खुली धर्मांधता और भेदभाव को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल किया गया। मौजूदा माहौल ने उन लोगों को सशक्त किया है जो सांप्रदायिक नफरत और धर्मांधता फैलाना चाहते हैं। कुछ ऐसा ही दुनिया के कई और हिस्सों में भी हो रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि पूरी दुनिया के तंत्र के लिए कोविड-19 महामारी ‘बहुत बड़े झटके’ की तरह रही है। ऐसा झटका जो मौजूदा दुनिया के अनुशासन को अस्त-व्यस्त कर सकता है। दुनियाभर में संप्रभुताएं फिर से कायम हो रही हैं और सभी संधियां तथा व्यापार समझौतों पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं।

ऐसे में बहुपक्षीय राजनय (मल्टीलैटरलिज्म यानी किसी समस्या के समाधान के लिए कई देशों का साथ आना) अगला ‌शिकार हो सकता है। राष्ट्रपति ट्रम्प की अमेरिका के विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर आने की घोषणा शायद आने वाले समय में उस अंतरराष्ट्रीय तंत्र के टूटने का सूचक है, जिसे दूसरे विश्व युद्ध के समय कड़ी मेहनत के बाद बनाया गया था।

कोरोना वायरस को लेकर दुनिया की प्रतिक्रिया भविष्य के संकटों से लड़ने के लिए हमारे वैश्विक संस्थानों को मजबूत करने की बजाय उस सबसे आधारभूत गुण को नष्ट कर देगी जो कोरोना की वजह से सामने आया है। यह गुण है हमारी साझी मानवता का विचार।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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शशि थरूर, पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद

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