भाग हरीवा, हरीवा भाग...तालिबानी जुल्म की यह आवाज आज भी उसके कानों में गूंज रही है। हरीवा फिर अफगानिस्तान की उन्हीं गलियों में लौटने वाली हैं। जहां से भागकर वह दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) पहुंची थीं। वह पर्यावरण में मास्टर्स की डिग्री ले चुकी हैं।
एक साल की उम्र में पिता को खो देने वाली हरीवा बताती हैं, ‘मां हम 6 बहनों को अकेले पाल रही थी। तालिबानी कानून में औरतों को काम करने की मनाही थी। इसलिए उनकी दो बड़ी इंजीनियर बहनाें को घर बैठना पड़ा। हर वक्त तालिबान के घर में घुस आने का खतरा रहता था। इसलिए मां पांच साल तक दिन-रात जागकर हम लोगों की रखवाली करती रही। बहनों ने घर में सिलाई का काम कर गुजारा किया।’
हरीवा ने कहा- जब मैं 7 साल की थी, तब लड़कों की तरह बाल कटवाए थे
हरीवा बताती हैं, ‘जब मैं 7 साल की थी, तब लड़कों की तरह बाल कटवाए थे। एक दिन नाई की दुकान पर बाल सेट कराने गई, तो कान की रिंग देखकर दो तालिबानियों को मुझ पर शक हो गया। नाई ने मुझे भागने का इशारा किया। मैं भाग निकली और एक कुएं में कूदकर किसी तरह जान बचाई।
'तालिबान मुझे नहीं पकड़ पाए तो नाई का मुंह काला कर दिया'
तालिबान मुझे नहीं पकड़ पाए तो नाई का मुंह काला करने के बाद उसे कोड़े से मारते हुए गलियों में घुमाया। समय बदला तो ग्रामीण पुनर्वास एवं विकास मंत्रालय में नौकरी लग गई। लेकिन, वहां भी एक दिन आत्मघाती हमला हो गया। किसी तरह बचकर निकली।
2017 में इंडियन कॉउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशंस में स्कॉलरशिप हासिल कर दिल्ली आ गई। यहां जाना आजादी क्या होती है। हरीवा भारत में रहकर पीएचडी करना चाहती हैं। लेकिन घर पर मां-बहनें इंतजार कर रही हैं। (हरीवा का नाम परिवर्तित है।)
'अफगानी महिलाओं के हक के लिए काम करूंगी'
काबुल लौटकर हरीवा नौकरी करना चाहती हैं। साथ ही जनरेशन पॉजिटिव एनजीओ के साथ जुड़कर औरतों के हक के लिए भी काम करना चाहती हैं। वे कहती हैं, मेरी कोशिश होगी कि हिजाब, बुरका और चादरी जैसा पहनावा किसी औरत पर थोपा न जाए। उन्हें मजबूर न किया जाए कि शाम छह बजने से पहले उन्हें काम से घर लौटना ही है।
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