देश की विदेश नीति के बारे में लिखना हमेशा मुश्किल होता है। खासतौर पर ऐसे व्यक्ति के लिए जिसने खुद विदेश मंत्रालय का जिम्मा संभाला हो। कई विशेषज्ञ और विद्वान, यहां तक कि सेवानिवृत्त सैन्य और राजनयिक अधिकारी भी अपनी बात खुलकर रखने के बाद प्रतिक्रियाओं से बच सकते हैं, लेकिन राजनीति में जो लोग हैं उन्हें विरोधी पक्ष की प्रतिक्रियाएं झेलनी पड़ती हैं।
इसलिए मैं शब्दों के चयन को लेकर बहुत सचेत रहता हूं। इसके बावजूद ऑक्सफोर्ड यूनियन डिबेट में या भारत के बाहर किसी प्रतिष्ठित थिंक टैंक के कार्यक्रम तक में कुछ कहने पर मीडिया का एक हिस्सा भड़क जाता है।
यह समझने की जरूरत है कि राजनीतिक विचारों और विचारधाराओं के अन्य आयामों की तरह पार्टियां विदेश नीति पर भी असहमत होती हैं। अतीत में, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और भारतीय लोकतंत्र के शैशवकाल से ही विदेश नीति पर एक व्यापक सर्वसम्मति थी।
हालांकि, जनसंघ और उसके सहयोगियों ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को यूएन ले जाने और भारत द्वारा चीन की तिब्बत नीति को मान लेने पर आपत्तियां जताई थीं। अब पीछे मुड़कर देखते हैं तो इसके पुनर्मूल्यांकन की जरूरत लगती है, हालांकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक उथल-पुथल के पिघले लावे को ठंडा होने में समय लगता है और यह अंदाजा लगाना हमेशा आसान नहीं होता कि यह ठोस होने पर क्या आकार लेगा।
तो हम बीजेपी सरकार की मौजूदा विदेश नीति को कैसे देखते हैं? पहली बात, मौजूदा प्रधानमंत्री ने सफर के मामले में अपने सभी पूर्ववर्तियों को पीछे छोड़ दिया है और पिछले 6 सालों में विश्व नेताओं को अक्सर गले लगाकर घनिष्ठ लगने वाले निजी संबंध बनाए हैं।
यह जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की पीढ़ियों से रोचक विरोधाभास है, जिनकी विश्व मंच पर मौजूदगी को एशिया और अफ्रीका के स्वतंत्रता आंदोलनों के युग के दौरान विकसित हुए संबंधों के सातत्य के रूप में देखा जाता था। मौजूदा प्रधानमंत्री के बनाए गए संबंधों की ऊर्जा का असर घर में तो दिखा, लेकिन इसका वैश्विक स्तर पर कोई वास्तविक असर हुआ हो, इसके साक्ष्य बहुत कम हैं।
भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए बढ़ रहे समर्थन की जड़ें दरअसल डॉ मनमोहन सिंह के सुधार वर्षों में मिले बल में निहित हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के भारत को जी-7 में शामिल करने के सुझाव के पीछे भी यही है। यह भले ही उत्साहजनक हो, लेकिन यह अलग बात है कि हमारे समर्थक राष्ट्रपति ट्रम्प खुद अपने घर में और अमेरिका के पारंपरिक सहयोगियों के बीच समस्याओं से घिरे हुए हैं।
फिर एक सफल विदेश नीति के लिए दो स्तंभ मजबूत होना जरूरी हैं: पी-5 (सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य) और दक्षिण एशिया के हमारे पड़ोसियों (सार्क सदस्य देश) से हमारे संबंध। इसमें आंशिक रूप से चीन भी है और तथ्य यह है कि 1962 के बाद से स्थिति कभी इतनी बुरी नहीं रही, जितनी आज है।
आधिकारिक बयान जो कि देशभक्तों के लिए स्वीकारना आसान है, यह है कि ‘हमें एक बार फिर 1962 की तरह धोखा दिया गया है और वह भी 5 मई को स्थानीय कमांडरों के बीच डि-एस्कलेशन और डिसएंगेजमेंट को लेकर हुए समझौते के बाद।’
लेकिन, फिर सवाल आता है कि ‘फिर क्या?’ हमारे प्रधानमंत्री के लिए कहना आसान है, ‘हमें शांति और मित्रता चाहिए लेकिन हम जानते हैं कि उकसाने पर कैसे जवाब दिया जाए।’ लेकिन कोई यह भी कह सकता है कि क्या हमारे 20 जवानों की बेरहमी से हत्या उकसाने के लिए काफी नहीं है?
इस समय प्रधानमंत्री के उन शब्दों को याद करना, जो उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए कहे थे, या फिर स्वर्गीय सुषमा स्वराज (तत्कालीन नेता विपक्ष) और रवि शंकर प्रसाद के शब्दों को याद करना अनुचित होगा। और फिर भले ही अक्साई चीन के बारे में गृहमंत्री अमित शाह के दिखावटी आवेश में नाटकीयता थी, लेकिन चीनियों पर जरूर इसका बुरा असर पड़ा।
लद्दाख में हुई गड़बड़ी को ठीक करने का जिम्मा सेना को दे दिया गया, हथियारों से नहीं, बल्कि बातचीत से। हम इस बात पर सहमत होने के अलावा कुछ नहीं कर सकते, जैसा कि कोई भी समझदार व्यक्ति मानेगा कि युद्ध का विकल्प ठीक नहीं है। लेकिन, बयानों में प्रतिशोध की धमकी और सीमित सैन्य कार्रवाई की बात (जैसे कि फैसला पूरी तरह एकतरफा होगा) स्थानीय कमांडरों की शायद ही तापमान कम करने में कोई मदद करे।
एलएसी को लेकर अलग-अलग समझ के बीच हमें यह सवाल भी खुद से पूछना चाहिए कि चीन ने ये खतरनाक कदम अभी ही क्यों उठाए? राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भव्य आवभगत और साथ झूला झूलने के बाद क्या हमारे प्रधानमंत्री को उस आदमी की मंशा समझ नहीं आई जो उस पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी को नियंत्रित करता है, जिसने हमें और हमारे सम्मान को चोट पहुंचाई है?
दूसरी तरफ क्या चीनी राष्ट्रपति ने हमारी लचीली विदेश नीति को देख एक लाल रेखा खींच दी है? वह विदेश नीति जो अमेरिका से भी नजदीकी जताती है, इंडो-पैसिफिक में क्वाड एजेंडा पर जोर देती है और चुपचाप ‘वुहान वायरस’ के खिलाफ उठ रही पश्चिमी आवाजों में अपनी आवाज भी मिला देती है। दुर्भाग्य से यह लाल रेखा हमारे शहीदों के पवित्र खून से खींची गई है।
अब आगे का रास्ता नेहरू-गांधी युग से मिली सीख और गुट-निरपेक्षता के सार में है, भले ही सक्रिय वैश्विक संरचना बदल गई है। हमें दोस्तों का दोस्त रहना चाहिए और सभी के लिए सबकुछ नहीं होना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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