जब हम बुंदेलखंड पहुंचे तो हमें बेरोजगारी और गरीबी से जूझ रहे यहां के गांवों में अलग-अलग तस्वीर देखने को मिली। हमेंखेमचंद मिले, जोसैकड़ों किमी पैदल चलकर अपने छोटे बच्चों के साथ शेरवास गांव आए थे। हमें सावित्री भी मिलीं, जो अपने 7और 5 साल के बच्चे के साथ पैदल कडेसरा गांव पहुंची थी।हमें ललितपुर और झांसी जिले की बबीना तहसील के आदिवासी बहुल गांवों में तो एक अलग ही तस्वीर देखने को मिली। यहांसैकड़ों किमी दूर से आईं महिलाओं के पैरों के छाले सूखे भी नहीं थे कि गांव में आकर उन्हें बिना चप्पल के रहना पड़ा, क्योंकि ससुराल मेंमर्दों के सामनेवे चप्पल नहीं पहन सकतीं।
ऐसे ही गांवों की तीन कहानियां
कोई भूखा न सोए इसलिए महिलाओं ने बनाया अनाज बैंक
झांसी से करीब 60 किलोमीटर दूर झांसी-सागर फोर लेन हाईवे से दस किलो मीटर अंदर पतली सी सड़क जाती है और फिर आदिवासी बहुल टपरन/तिन्दरा गांव आता है। स्थानीय निवासी बताते हैं कि टपरे (झोपड़ी) नुमा घर होने के कारण गांव का नाम टपरन पड़ा, जिसे बाद में तिन्दरा कहा जाने लगा।गांव में 200 घर हैं इनमें ज्यादतरआदिवासी परिवारों केहैं।
छोटे, गरीब लेकिन मजबूत इरादों वाले इन गांववालों ने अनाज बैंक बनाने की एक पहल की है,ताकि गांव में कोई परिवार भूखा नसोए। खास बात यह है कि इस पहल की अगुवाई महिलाएं कर रही हैं। 52 साल कीगोमा और 48 साल कीबूदा ने 15 महिलाओं के साथ मिलकर इसे बनाया है। इस साल अप्रैल से लेकर अब तक इसमें 11 क्विंटल 60 किलो गेहूं इकट्ठा हो गया है।
बैंक के बारे में गोमा बताती हैं, ‘इसमें हर परिवार अपने यहां होने वाली उपज का एक हिस्सा अनाज बैंक में रखता है और जरूरत पड़ने पर ले जाता है। फसल आने पर वह फिर से बैंक में अनाज जमा कर देता है। जरूरतमंद को गेहूं मिल जाता है। हम गांव के ही हैं, इसलिएहमें सभी के बारे में पता है, जो अनाज लौटाने की हालतमें नहीं है उनसे हम अनाज वापस नहीं लेते हैं।’
लाॅकडाउन में इंदौर में ईंट भट्टा पर काम कर रहे नौनेलाल जब गांव परिवार के साथ लौटे तो उनके पास खाने को कुछ नहीं था।ऐसे में उन्होंने यहीं से पांच पैली (पीतल का बर्तन, जिसमें 10 किलो अनाज आता है) गेहूं लिया। नौनेलाल बताते हैं कि सवा एकड़ जमीन के बीच वे चार भाई हैं। ईंट भट्टा पर काम कर छह लोगों का परिवार चलाते हैं। जब गांव लौटे तो खाने को कुछ नहीं था तब गोमा काकी से संपर्क किया और अनाज लिया।
घर में मर्द हैं तो ससुराल में चपल्लें नहीं पहनती आदिवासी महिलाएं
ललितपुर से करीब 40 किलो मीटर दूर छोटा सा गांव है हनौता। पत्थरों की बागड़ वाले दो कमरों के मकान (जिसमें एक जानवरों के लिए हैं) में रहती हैं 25 वर्षीय फूलबती। 20 दिन पहले ही इंदौर से लौटी हैं। ललितपुर से गांव तक का रास्ता पैदलही तय किया है। वे अपने पतिके साथ ईंट भट्टे पर काम करती थीं। 45 डिग्री से अधिक की चिलचिलाती दोपहर में खुले आसमान के नीचे फूलबती हमसे बातें कर रहीथींकिअचानक हमारी नजरउनके पैरों पर पड़ी।यह पूछने पर कि उन्होंने चप्पलक्यों नहीं पहनी? इस पर जवाब मिला, ‘चप्पल तो है, लेकिन ससुराल में गांव के मर्दों के आगे हम नहीं पहनते। यहां यही परंपरा है।’
यह पूछने पर कि पैर नहीं जल रहे? तोफूलबती कहती हैं कि अब तो आदत पड़ गई है। इस बीच गांव के 45 वर्षीय विक्रम बीच में ही कह पड़ते हैं,‘मरदन की इज्जत करती हैं बाके मारे वे चप्पल नाईं पहरती।’ फूलबती ही नहीं 40 वर्षीय प्रेमबाई, 42 वर्षीय रती और गांव की अन्य महिलाएं भी हमें बिना चप्पलों के ही नजर आईं।
फूलबती के पास अभी रोजगार नहीं है क्योंकि कोरोना के कारण उन्हें गांव वापस आना पड़ा है। वे इस कुरीति को चुपचाप हंसकर निभा रहीं हैं। सामाजिक कार्यकर्ता दीक्षित बताते हैं कि ललितपुर जिलेमें और झांसी की बबीना तहसील के आदिवासी बहुल गांवों में यह कुरीति हमेशा से चली आ रही है।
प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार का जरियाबनीं बकरियां
ऐसे समय जब ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के सरकारी प्रयास छोटेसाबित हो रहे हैं। गांव वाले अपने स्तर पर लोगों के लिए रोजगार के वैकल्पिक साधन मुहैया करवाने में जुटे हैं। ऐसा ही एक विकल्प बुंदेलखंड के हनौता गांव में आकार ले रहा है और उसका नाम है बकरी पालन।
गांव में लौटे प्रीतम के पास कोई रोजगार नहीं है। रोजगार के नाम पर उनकी पौने दो एकड़ जमीनहै। वे कहते हैं कि बुंदेलखंड में लगातार सूखे के बाद खेती करना महंगा हो गया है और ज्यादा उपज हो नहीं पाती है। इसलिए ईंट भट्टा पर कामकरने मध्यप्रदेश चले गए थे। जब आय का कोई साधन नहीं बचा तो मयंक करौलिया से संपर्क किया। मयंक ने उन्हें तीन बकरी मुहैया करवाईं।
प्रीतम बताते हैं,बकरी 14 महीने में दो बार बच्चे देती हैं। उनके बकरे बड़े होने के बाद 15 हजार रुपए तक बिक जाते हैं। एक साल में बकरे बेच कर 50 से 60 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है। इनके चारेका खर्च भी ज्यादा नहीं है, पास में ही जंगल मेंचारा मिल जाता है।
परमार्थ समाजसेवी संगठन से जुड़े मयंक कहते हैं कि हमने अभी तक 20 गांव वालों को तीन-तीन बकरियां दी हैं। इनमें आठ प्रवासी मजदूरहैं। 15 से 18 हजार रुपए में तीन बकरियां पड़ जाती हैं जिनमें से एक बड़ी और दो छोटी-छोटी बकरियां हम ग्रामीणों को देते हैं।अगर सही ढंग से ग्रामीण बकरी पालन करें तो उन्हें गांव से बाहर नहीं जाना पड़ेगा।
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